वर्णीजी
भवभ्रमणविश्रान्ते मोहनिद्रास्तचेतने ।
एक एव जगत्यस्मिन् योगी जागर्त्यहर्निशम् ॥40॥
अन्वयार्थ :
संसार-भ्रमण से विश्रान्त और मोहरूपी निद्रा से जिसकी चेतना नष्ट हो गई है, ऐसे इस जगत में मुनिगण ही निरंतर जागते हैं ।
वर्णीजी