मुक्तिस्त्रीवक्त्रशीतांशुं द्रष्टुमुत्कण्ठिताशयै: ।
मुनिभिर्मथ्यते साक्षाद्विज्ञानमकरालय: ॥42॥
उपर्युपरिसंभूतदु:खवह्निक्षत॑ जगत्‌ ।
वीक्ष्य सन्त: परिप्राप्ता: ज्ञानवारिनिधेस्तटम्‌ ॥43॥
अन्वयार्थ : मुक्तिरूपी स्त्री के मुखरूपी चन्द्रमा के देखने को उत्सुक हुए मुनिजन साक्षात्त विज्ञानरूपी समुद्र का मंथन करते हैं ।
बारंबार उत्पन्न हुई दुःखाग्नि से क्षय होते जगत को देखकर सन्त-पुरुष ज्ञानरूपी समुद्र के तट पर प्राप्त हुए हैं ।

  वर्णीजी