जीवितव्ये सुनि:सारे नृजन्मन्यतिदुर्लभे ।
प्रमादपरिहारेण विज्ञेयं स्वहितं नृणाम्‌ ॥46॥
विचारचतुरैधीरैरत्यक्षसुखलालसै: ।
अत्र प्रमादमुत्सृज्य विधेय: परमादर: ॥47॥
न हि कालकलैकापि विवेकविकलाशयै: ।
अहो प्रज्ञाधनैर्नेया नृजन्मन्यतिदुर्लभे ॥48॥
अन्वयार्थ : मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है । जीवितव्य है सो निःसार है । ऐसी अवस्था में मनुष्य को आलस्य त्याग के अपने हित को जानना चाहिये ।
जो धीर और विचारशील पुरुष हैं, तथा अतीन्द्रिय सुख (मोक्षसुख) की लालसा रखते हैं, उनको प्रमाद छोड़कर इस मोक्ष में ही परम आदर करना चाहिये ।
अहो भव्य जीवों ! यह मनुष्य जन्म बड़ा दुर्लभ है और इसका बारबार मिलना कठिन है, इस कारण बुद्धिमानों को चाहिये कि, विचार-शून्य हृदय होकर काल की एक कला को भी व्यर्थ नहीं जाने दें ।

  वर्णीजी