
भृशं दुःखज्वालानिचयनिचितं जन्मगहनम्
यदक्षाधीनं स्यात्सुखमिह तदन्तेतिविरसम् ।
अनित्या: कामार्था: क्षणरुचिचलं जीवितमिदं
विमृश्योच्चै: स्वार्थ क इह सुकृती मुह्यति जनः ॥49॥
अन्वयार्थ : यह संसार दुःखरूपी अग्नि की ज्वाला से व्याप्त बड़ा गहन वन है । इस संसार में इन्द्रियाधीन सुख है सो अन्त में विरस है, दुःख का कारण है, तथा दु:ख से मिला हुआ है । और जो काम और अर्थ हैं सो अनित्य हैं, सदैव नहीं रहते । तथा जीवित है, सो बिजली के समान चंचल है । इस प्रकार समीचीनता से विचार करनेवाले जो अपने स्वार्थ में सुकृती-पुण्यवान्-सत्पुरुष हैं, वे कैसे मोह को प्राप्त होवें ?
वर्णीजी