सङ्गै: किं न विषाद्यते वपुरिदं किं छिद्यते नामयै: ।
मृत्यु: किं न विजृम्भते प्रतिदिन द्रुह्यन्ति किं नापद: ॥
श्वभ्रा: किं न भयानका: स्वपनवद्भोगा न किं वञ्चका: ।
येन स्वार्थमपास्य किन्नरपुरप्रख्ये भवे ते स्पृहा ॥1॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन्‌ ! इस संसार में संग (धन-धान्य स्त्री-कुटुंबादिक के मिलापरूप जो परिग्रह) हैं, वे क्‍या तुझे विषादरूप नहीं करते ? तथा यह शरीर है, सो रोगों के द्वारा छिन्न रूप वा पीड़ित नहीं किया जाता है ? तथा मृत्यु क्‍या तुझे प्रतिदिन ग्रसने के लिए मुख नहीं फाड़ती है ? और आपदायें क्‍या तुझसे द्रोह नहीं करती हैं ? क्‍या तुझे नरक भयानक नहीं दिखते ? और ये भोग हैं सो क्‍या स्वप्न के समान तुझे ठगनेवाले (धोखा देनेवाले) नहीं हैं ? जिससे कि तेरे इन्द्रजाल से रचे हुए किन्नरपुर के समान इस असार संसारमें इच्छा बनी हुई है ?

  वर्णीजी