समत्वं भज भूतेषु निर्ममत्वं विचिन्तय ।
अपाकृत्य मनःशल्यं भावशुद्धिं समाश्रय: ॥4॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन्‌ ! तू समस्त जीवों को एक-सा जान । ममत्व को छोड़कर निर्ममत्व का हितोपदेश चिंतवन कर। मन की शल्य को दूर कर (किसी प्रकार की शल्य / क्लेश अपने चित्त में न रखकर) अपने भावों की शुद्धता को अंगीकार कर ।

  वर्णीजी