चिनु चित्ते भृशं भव्य भावना भावशुद्धये ।
या: सिद्धान्तमहातन्त्रे देवदेवै: प्रतिष्ठिता: ॥5॥
अन्वयार्थ : हे भव्य ! तू अपने भावों की शुद्धि के अर्थ अपने चित्त में बारह भावनाओं का चिंतवन कर, जिन्हें देवाधिदेव श्री तीर्थकर भगवान ने सिद्धान्त के प्रबन्ध में प्रतिष्ठित की हैं ।

  वर्णीजी