
अनित्याद्या: प्रशस्यन्ते द्वादशैता मुमक्षुभि: ।
या मुक्तिसौधसोपानराजयोऽत्यन्तबन्धुरा: ॥7॥
अन्वयार्थ : वे भावना अनित्य आदि द्वादश हैं । इनको मोक्षाभिलाषी मुनिगणों ने प्रशंसारूप कही हैं । क्योंकि ये सब भावनायें मोक्षरूपी महल के चढ़ने की अति उत्तम पैड़ियों की पंक्ति समान हैं ।
वर्णीजी