वर्णीजी
हृषीकार्थसमुत्पन्ने प्रतिक्षणविनश्चरे ।
सुखे कृत्वा रतिं मूढ विनष्टं भुवनत्रयं ॥1॥
अन्वयार्थ :
हे मूढ़ ! क्षण में नाश होनेवाले इन्द्रिय-जनित सुख में प्रीति करके ये तीनों भुवन नाश को प्राप्त हो रहे हैं, सो तू क्यों नहीं देखता ?
वर्णीजी