वर्णीजी
भोगा भुजङ्गभोगाभा: सद्यः प्राणापहारिण: ।
सेव्यमाना: प्रजायन्ते संसारे त्रिदशैरपि ॥13॥
अन्वयार्थ :
इस संसार में भोग सर्प के फण समान हैं, क्योंकि इनको सेवन करते हुए देव भी शीघ्र प्राणान्त हो जाते हैं ।
वर्णीजी