ये जाता रिपवः पूर्व जन्मन्यस्मिन्विधेर्वशात्‌ ।
त एव तव वर्त्तन्ते बान्धवा बद्धसौहृद: ॥19॥
रिपुत्वेन समापन्ना: प्राक्तनास्तेऽत्र जन्मनि ।
बान्धवा: क्रोधरुद्धाक्षा दृश्यन्ते हन्तुमुद्यता: ॥20॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन्‌ ! जो पूर्व-जन्म में तेरे शत्रु थे, वे ही इस जन्म में तेरे अति स्नेही होकर बंधु हो गये हैं, अर्थात्‌ तू इनको हितू (मित्र) समझता है, परन्तु ये तेरे
हितू (मित्र) नहीं हैं, किन्तु पूर्व-जन्म के शत्रु हैं ।
और जो पूर्व-जन्म में तेरे बांधव थे, वे ही इस जन्म में शत्रुता को प्राप्त होकर तथा क्रोध-युक्त लाल-नेत्र करके तुझे मारने के लिये उद्यत हुए हैं । यह प्रत्यक्ष में देखा जाता है ।

  वर्णीजी