
पातयन्ति भवावर्त्ते ये त्वां ते नैव बान्धवा: ।
बन्धुतां ते करिष्यन्ति हितमुद्दिश्य योगिन: ॥22॥
अन्वयार्थ : देखो ! आत्मन् ! जो तुझे संसार के चक्र में डालते हैं, वे तेरे बांधव नहीं हैं, किन्तु जो मुनिगण तेरे हित की वांछा करके बंधुता करते हैं, , वे ही वास्तव में तेरे सच्चे और परम मित्र हैं ।
वर्णीजी