शरीरं शीर्यते नाशा गलत्यायुर्न पापधी: ।
मोह: स्फुरति नात्मार्थ: पश्य वृत्तं शरीरिणाम्‌ ॥23॥
अन्वयार्थ : देखो ! इन जीवों का प्रवर्तन कैसा आश्चर्यकारक है कि, शरीर तो प्रतिदिन छीजता जाता है और आशा नहीं छीजती है; किन्तु बढ़ती जाती है । तथा आयुबल तो घटता जाता है और पाप-कार्यों मे बुद्धि बढ़ती जाती है । मोह तो नित्य स्फुरायमान होता है और यह प्राणी अपने हित (कल्याण) मार्ग में नहीं लगता है । सो यह कैसा अज्ञान का माहात्म्य है !

  वर्णीजी