
यास्यन्ति निर्दया नूनं यद्दत्वा दाहमूर्जितम् ।
हृदि पुंसां कथं ते स्युतस्तव प्रीत्यै परिग्रहा: ॥24॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन् ! यह परिग्रह पुरुषों के हृदय में अतिशय दाह देकर अवश्य ही चले जाते हैं । ऐसे ये परिग्रह तेरी प्रीति करने योग्य कैसे हो सकते हैं ?
वर्णीजी