वर्णीजी
अनेन नृशरीरेण यल्लोकद्वयशुद्धिदम् ।
विवेच्य तदनुष्ठेयं हेयं कर्म ततोऽन्यथा ॥28॥
अन्वयार्थ :
इसलिये प्राणी को चाहिए कि, इस मनुष्य देह से उभय लोक में शुद्धता को देनेवाले कार्य का विचार करके अनुष्ठान करे और उससे भिन्न अन्य सब कार्य छोड़ दे ।
वर्णीजी