
वर्द्धयन्ति स्वधाताय ते नूनं विषपादपम् ।
नरत्वेऽपि न कुर्वन्ति ये विवेच्यात्मनो हितम् ॥29॥
अन्वयार्थ : जिसमें समस्त प्रकार के विचार करने की सामर्थ्य है, तथा जिसका पाना दुर्लभ है ऐसे मनुष्य-जन्म को पाकर भी जो अपना हित नहीं करते, वे अपने घात करने के लिये विष-वृक्ष को बढ़ाते हैं ।
वर्णीजी