
प्रातस्तरुं परित्यज्य यथैते यान्ति पत्रिण: ।
स्वकर्मवशगा: शश्चत्तथैते क्वापि देहिन: ॥31॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार वे पक्षी प्रभात के समय उस वृक्ष को छोड़कर अपना-अपना रास्ता लेते हैं, उस ही प्रकार यह प्राणी भी आयु पूर्ण होने पर अपने-अपने कर्मानुसार अपनी-अपनी गति में चले जाते हैं ।
वर्णीजी