
सुरोरगनरैश्वर्यं शक्रकार्मुकसन्निभम् ।
सद्यः प्रध्वंसमायाति दृश्यमानमपि स्वयम् ॥36॥
यान्त्येव न निवर्त्तन्ते सरितां यद्वदूर्मय: ।
तथा शरीरिणां पूर्वा गता नायान्ति भूतय: ॥37॥
क्वचित्सरित्तरंगाली गतापि विनिवर्त्तते ।
न रूपबललावण्यं सौन्दर्यं तु गतं नृणाम् ॥38॥
अन्वयार्थ : इस जगत में जो सुर , उरग और मनुष्यों के इन्द्र के ऐश्वर्य हैं, वे सब इन्द्रधनुष के समान हैं, अर्थात् देखने में अति-सुंदर दिख पड़ते हैं, परन्तु देखते-देखते विलय हो जाते हैं ।
जिस प्रकार नदी की जो लहरें जाती हैं, वे फिर लौटकर कभी नहीं आती हैं, इसी प्रकार जीवों की जो विभूति पहिले होती है, वह नष्ट होने के पश्चात् फिर लौटकर नहीं आती । यह प्राणी वृथा ही हर्ष-विषाद करता है ।
नदी की लहरें कदाचित् कहीं लौट भी आती हैं, परन्तु मनुष्यों का गया हुआ रूप, बल, लावण्य और सौन्दर्य फिर नहीं आता । यह प्राणी वृथा ही उनकी आशा लगाये रहता है ।
वर्णीजी