फेनपुञ्जेऽथवा रम्भास्तम्भे सार: प्रतीयते ।
शरीरे न मनुष्याणां दुर्बद्धे विद्धि वस्तुत: ॥42॥
अन्वयार्थ : हे दुर्बद्धि मूढ़ प्राणी ! वास्तव में देखा जाय, तो झागों के समूह में तथा केले के थंभ में तो कुछ सार प्रतीत होता भी है, परन्तु मनुष्यों के शरीर में तो कुछ सार नहीं है ।

  वर्णीजी