मोहाञ्जनमिवाक्षाणामिन्द्रजालोपमं जगत्‌ ।
मुह्यत्यस्मिन्नयं लोको न विद्भ: केन हेतुना ॥45॥
अन्वयार्थ : यह जगत इन्द्रजालवत्‌ है । प्राणियों के नेत्रों की मोहनी अञज्जन के समान भूलाता है और लोग इसमें मोह को प्राप्त होकर अपने को भूल जाते हैं, (लोग धोखा खाते हैं), अतः आचार्य महाराज कहते हैं कि, हम नहीं जानते ये लोग किस कारण से भूलते हैं । यह प्रबल मोह का माहात्म्य ही है ।

  वर्णीजी