वर्णीजी
वर्णीजी
सुरासुरनराहीन्द्रनायकैरपि दुर्द्धरा ।
जीवलोकं क्षणार्धेन बध्नाति यमवागुरा ॥3॥
अन्वयार्थ :
यह काल का जाल
(फंदा)
ऐसा है कि क्षण-मात्र में जीवों को फाँस लेता है और सुरेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र तथा नागेन्द्र भी इसका निवारण नहीं कर सकते हैं ।
वर्णीजी
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