वर्णीजी
प्रतीकारशतेनापि त्रिदशैर्न निवार्यते ।
यत्रायमन्तक: पापी नृकीटैस्तत्र का कथा ॥7॥
अन्वयार्थ :
जब यह पापस्वरूप यम देवताओं के सैकड़ों उपायों से भी नहीं निवारण किया जाता है, तब मनुष्यरूपी कीडे की तो बात ही क्या ?
वर्णीजी