परस्येव न जानाति विपत्तिं स्वस्य मूढधी: ।
वने सत्त्वसमाकीर्णे दह्ममाने तरुस्थवत्‌ ॥10॥
अन्वयार्थ : ये मूढ़जन दूसरों की आई हुई आपदाओं के समान अपनी आपदाओं को इस प्रकार नहीं जानते, जैसे असंख्य जीवों से भरा हुआ वन जलता हो और वृक्ष पर बैठा
हुआ मनुष्य कहे कि 'देखो ये सब जीव जल रहे हैं, परन्तु यह नहीं जाने कि, जब यह वृक्ष जलेगा, तब मैं भी इनके समान ही जल जाऊंगा'; यह बड़ी मूर्खता है ।

  वर्णीजी