स्रग्धरा-भ्रूभङ्गारम्भभीतं स्खलति जगदिदं ब्रह्मलोकावसानम्
सद्यस्त्रुट्यन्ति शैलाश्चरणगुरुभराक्रान्तधात्रीवशेन।
येषां तेऽपि प्रवीरा: कतिपयदिवसै: कालराजेन सर्वे
नीता वात्र्तावशेषं तदपि हतधियां जीवितेऽप्युद्धताशा॥15॥
अन्वयार्थ : जिनकी भौंह के कटाक्षों के प्रारम्भ मात्र से ब्रह्मलोक पर्यन्त का यह जगत भयभीत हो जाता है तथा जिनके चरणों के गुरुभार के कारण पृथ्वी के दबने मात्र से पर्वत तत्काल खण्ड-खण्ड हो जाते हैं, ऐसे-ऐसे सुभटों को भी, जिनकी कि अब कहानी मात्र ही सुनने में आती है, इस काल ने खा लिया है। फिर यह हीनबुद्धि जीव अपने जीने की बड़ी भारी आशा रखता है, यह कैसी बड़ी भूल है ॥१५॥

  वर्णीजी