
आरब्धा मृगबालिकेव विपिने संहारदन्तिद्विषा
पुंसां जीवकला निरेति पवनव्याजेन भीता सती ।
त्रातुं न क्षमसे यदि क्रमपदप्राप्तां वराकीमिमां
न त्वं निर्घृण लज्जसेऽत्र जनने भोगेषु रन्तुं सदा ॥17॥
अन्वयार्थ : हे मूढ़ प्राणी! जिस प्रकार वन में मृग की बालिका को सिंह पकड़ने का आरम्भ करता है और वह भयभीत होकर भागती है, उसी प्रकार जीवों के जीवन की कला कालरूपी सिंह से भयभीत होकर उच्छ्वास के बहाने से बाहर निकलती है अर्थात् भागती है और जिस प्रकार वह मृग की बालिका सिंह के पाँवों तले आ जाती है उसी प्रकार जीवों के जीवन की कला के अनुक्रम से अन्त को प्राप्त हो जाती है अतएव तू इस निर्बल की रक्षा करने में समर्थ नहीं है और हे निर्दयी! तू इस जगत में भोगों में रमने को उद्यमी होकर प्रवृत्ति करता है और लज्जित नहीं होता, यह तेरा निर्दयीपन है क्योंकि सत्पुरुषों की ऐसी प्रवृत्ति होती है कि यदि कोई समर्थ किसी असमर्थ प्राणी को दबावे तो अपने समस्त कार्य को छोड़कर उसकी रक्षा करने का विचार करते हैं और तू काल से हनते हुए प्राणियों को देखकर भी भोगों में रमता है और सुकृत करके अपने को नहीं बचाता है, यह तेरी बड़ी निर्दयता है ॥१७॥
वर्णीजी