(स्रग्धरा)
पाताले ब्रह्मलोके सुरपतिभवने सागरान्ते वनान्ते
दिक्चक्रे शैलशृंगे दहनवनहिमध्वान्तवज्रासिदुर्गे ।
भूगर्भे सन्निविष्टं समदकरिघटासंकटे वा बलीयान्
कालोऽयं क्रूरकर्मा कवलयति बलाज्जीवितं देहभाजां ॥18॥
अन्वयार्थ : यह काल बड़ा बलवान और क्रूरकर्मा (दुष्ट) है। जीवों को पाताल में, ब्रह्मलोक में, इन्द्र के भवन में, समुद्र के तट, वन के पार, दिशाओं के अन्त में, पर्वत के शिखर पर, अग्नि में, जल में, हिमालय में, अंधकार में, वज्रमयी स्थान में, तलवारों के पहरे में, गढ़ कोट भूमि घर में तथा मदोन्मत्त हस्तियों के समूह इत्यादि किसी भी विकट स्थान में यत्नपूर्वक बिठाओ तो भी यह काल बलात्कारपूर्वक जीवों के जीवन को ग्रसीभूत कर लेता है। इस काल के आगे किसी का भी वश नहीं चलता ॥१८॥

  वर्णीजी