
अस्मिन्नन्तकभोगिवक्त्रविवरे संहारदंष्ट्रांकिते
संसुप्तं भुवनत्रयं स्मरगरव्यापारमुग्धीकृतम् ।
प्रत्येकं गिलितोऽस्य निर्दयधिय: केनाप्युपायेन वै
नास्मान्नि:सरणं तवार्य कथमप्यत्यक्षबोधं विना ॥19॥
अन्वयार्थ : हे आर्य सत्पुरुष! अन्तसमयरूपी दाढ़ से चिह्नित कालरूप सर्प के मुखरूपी विवर में कामरूपी विष की गहलता से मूर्छित भुवनत्रय के प्राणी गाढ़ निद्रा में सो रहे हैं, उनमें से प्रत्येक को यह निर्दयबुद्धि काल निगलता जाता है परन्तु प्रत्यक्षज्ञान की प्राप्ति के बिना इस काल के पंजे से निकलने का कोई भी उपाय नहीं है अर्थात् अपने ज्ञान व स्वरूप का शरण लेने से ही इस काल से रक्षा हो सकती है। इस प्रकार अशरण भावना का वर्णन किया है ॥१९॥
जग में शरणा दोय, शुद्धातम अरु पंचगुरु ।
आन कल्पना होय, मोह उदय जियवै वृथा ॥२॥
इति अशरणभावना ॥२॥
वर्णीजी