चतुर्गतिमहावर्त्ते दु:खवाडवदीपिते ।
भ्रमन्ति भविनोऽजस्रं वराका जन्मसागरे ॥1॥
अन्वयार्थ : चार गतिरूप महा आवर्त्त (भौंरे) वाले तथा दु:खरूप वडवानल से प्रज्ज्वलित इस संसाररूपी समुद्र में जगत के दीन अनाथ प्राणी निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ॥१॥

  वर्णीजी