वर्णीजी
उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते स्वकर्मनिगडैर्वृत्ता: ।
स्थिरेतरशरीरेषु सञ्चरन्त: शरीरिण: ॥2॥
अन्वयार्थ :
ये जीव अपने-अपने कर्मरूपी बेड़ियों से बंधे स्थावर और त्रस शरीरों में संचार करते हुए मरते और उपजते हैं ॥२॥
वर्णीजी