वर्णीजी
कदाचिद्देवगत्यायुर्नामकर्मोदयादिह ।
प्रभवन्त्यङ्गिन: स्वर्गे पुण्यप्राग्भारसंभृता: ॥3॥
अन्वयार्थ :
कभी तो यह जीव देवगति नामकर्म और देवायुकर्म के उदय से पुण्यकर्म के समूहों से भरे स्वर्गों में देव उत्पन्न होता है ॥३॥
वर्णीजी