वर्णीजी
प्रच्यवन्ते तत: सद्य: प्रविशन्ति रसातलम् ।
भ्रमन्त्यनिलवद्विश्वं पतन्ति नरकोदरे ॥5॥
अन्वयार्थ :
फिर उस देवगति से च्युत होकर पृथ्वीतल पर आता है और वहाँ पवन के समान जगत में भ्रमण करता है और नरकों में गिरता है ॥५॥
वर्णीजी