रूपाण्येकानि गृह्णाति त्यजत्यन्यानि सन्ततम् ।
यथा रङ्गेऽत्र शैलूषस्तथायं यन्त्रवाहक: ॥8॥
अन्वयार्थ : यह यंत्रवाहक (प्राणी) संसार में अनेक रूपों को ग्रहण करता है और अनेक रूपों को छोड़ता है। जिस प्रकार नृत्य के रंगमंच पर नृत्य करने वाला भिन्न-भिन्न स्वांगों को धरता है उसी प्रकार यह जीव निरन्तर भिन्न-भिन्न स्वांग (शरीर) धारण करता रहता है ॥८॥

  वर्णीजी