
देवलोके नृलोके च तिरश्चि नरकेऽपि च ।
न सा योनिर्न तद्रूपं न तद्देशो न तत्कुलम् ॥12॥
न तद्दु:खं सुखं किञ्चिन्न पर्याय: स विद्यते ।
यत्रैते प्राणिन: शश्वद्यातायातैर्न खण्डिता: ॥13॥
अन्वयार्थ : इस संसार में चतुर्गति में फिरते हुए जीव के वह योनि वा रूप, देश, काल तथा वह सुख, दु:ख वा पर्याय नहीं है, जो निरन्तर गमनागमन करने से प्राप्त न हुई हो।
वर्णीजी