न के बन्धुत्वमायाता: न के जातास्तव द्विष: ।
दुरन्तागाधसंसारपङ्कमग्नस्य निर्दयम् ॥14॥
अन्वयार्थ : हे प्राणी! इस दुरन्त अगाध संसाररूपी कर्दम (कीच) में पँâसे हुए तेरे ऐसे कौन से जीव हैं जो मित्र वा निर्दयता से शत्रु नहीं हुए ? अर्थात् सब जीव तेरे शत्रु व बन्धु हो गये हैं ॥१४॥

  वर्णीजी