भूप: कृमिर्भवत्यत्र कृमिश्चामरनायक: ।
शरीरी परिवर्त्तेत कर्मणा वञ्चितो बलात् ॥15॥
अन्वयार्थ : इस संसार में यह प्राणी कर्मों से बलात् वंचित हो राजा से तो मरकर कृमि (लट) हो जाता है और कृमि से मरकर क्रम से देवों का इन्द्र हो जाता है। इस प्रकार परस्पर ऊँची गति से नीची गति और नीची गति से उँची गति पलटती ही रहती है ॥१५॥

  वर्णीजी