
श्वभ्रे शूलकुठारयन्त्रदहनक्षारक्षुरव्याहतै-
स्तिर्यक्षु श्रमदु:खपावकशिखासंभारभस्मीकृतै: ।
मानुष्येऽप्यतुलप्रयासवशगैर्देवेषु रागोद्धतै:
संसारेऽत्र दुरन्तदुर्गतिमये बम्भ्रम्यते प्राणिभि: ॥17॥
अन्वयार्थ : इस दुर्निवार दुर्गतिमय संसार में जीव निरन्तर भ्रमण करते हैं । नरकों में तो ये शूली, कुल्हाड़ी, घाणी, अग्नि, क्षार, जल, छुरा, कटारी आदि से पीड़ा को प्राप्त हुए नाना प्रकार के दु:खों को भोगते हैं और तिर्यंचगति में अग्नि की शिखा के भार से भस्मरूप खेद और दु:ख को पाते हैं तथा मनुष्यगति में भी अतुल्य खेद के वशीभूत होकर नाना प्रकार के दु:ख भोगते हैं । इसी प्रकार देवगति में रागभाव से उद्धत होकर दु:ख सहते हैं अर्थात् चारों ही गति में दु:ख ही पाते हैं, इन्हें सुख कहीं भी नहीं है। इस प्रकार संसार भावना का वर्णन किया है ॥१७॥
परद्रव्यनतें प्रीति जो, है संसार अबोध ।
ताको फल गति चार में, भ्रमण कह्यो श्रुतशोध ॥३॥
वर्णीजी