वर्णीजी
महाव्यसनसंकीर्णे दु:खज्वलनदीपिते ।
एकाक्येव भ्रमत्यात्मा दुर्गे भवमरुस्थले ॥1॥
अन्वयार्थ :
महाआपदाओं से भरे हुए दु:खरूपी अग्नि से प्रज्वलित और गहन ऐसे संसाररूपी मरुस्थल में
(जल-वृक्षादि हीन रेतीली भूमि में)
यह जीव अकेला ही भ्रमण करता है। कोई भी इसका साथी नहीं है ॥१॥
वर्णीजी