
स्वयं स्वकर्मनिर्वृत्तं फलं भोत्तुं शुभाशुभम् ।
शरीरान्तरमादत्ते एक: सर्वत्र सर्वथा ॥2॥
अन्वयार्थ : इस संसार में यह आत्मा अकेला ही तो अपने पूर्व कर्मों के सुख-दु:ख रूप फल को भोगता है और सर्व प्रकार से अकेला ही समस्त गतियों में एक शरीर से दूसरे शरीर को धारण करता है ॥२॥
वर्णीजी