सङ्कल्पानन्तरोत्पन्नं दिव्यं स्वर्गसुखामृतम् ।
निर्विशत्ययमेकाकी स्वर्गश्रीरञ्जिताशय: ॥3॥
अन्वयार्थ : तथा यह आत्मा अकेला ही स्वर्ग की शोभा से रंजायमान होकर देवोपनीत संकल्प मात्र करते ही उत्पन्न होने वाले स्वर्गसुखरूपी अमृत का पान करता है अर्थात् स्वर्ग के सुख भी अकेला ही भोगता है। कोई भी इसका साथी नहीं होता है ॥३॥

  वर्णीजी