वर्णीजी
संयोगे विप्रयोगे च संभवे मरणेऽथवा ।
सुखदु:खविधौ वास्य न सखान्योऽस्ति देहिन: ॥4॥
अन्वयार्थ :
इस प्राणी के संयोग-वियोग में अथवा जन्म-मरण में तथा दु:ख-सुख भोगने में कोई भी मित्र साथी नहीं है, अकेला ही भोगता है ॥४॥
वर्णीजी