मित्रपुत्रकलत्रादिकृते कर्म करोत्ययम् ।
यत्तस्य फलमेकाकी भुङ्क्ते श्वभ्रादिषु स्वयम् ॥5॥
अन्वयार्थ : तथा यह जीव पुत्र, मित्र, स्त्री आदि के निमित्त जो कुछ भी बुरे-भले कार्य करता है उनका फल भी नरकादिक गतियों में स्वयं अकेला ही भोगता है। वहाँ भी कोई पुत्र-मित्रादि कर्मफल भोगने को साथी नहीं होते हैं ॥५॥

  वर्णीजी