
सहाया अस्य जायन्ते भोत्तुं वित्तानि केवलम् ।
न तु सोढुं स्वकर्मोत्थं निर्दयां व्यसनावलीम् ॥6॥
अन्वयार्थ : यह प्राणी बुरे-भले कार्य करके जो भी धनोपार्जन करता है, उस धन के भोगने को तो पुत्र-मित्रादि अनेक साथी हो जाते हैं परन्तु अपने कर्मों से उपार्जन किये हुए निर्दयरूप दु:खों के समूह को सहने के अर्थ कोई भी साथी नहीं होता है! यह जीव अकेला ही सब दु:खों को भोगता है ॥६॥
वर्णीजी