
यदैक्यं मनुते मोहादयमर्थै: स्थिरेतरै: ।
तदा स्वं स्वेन बध्नाति तद्विपक्षै: शिवीभवेत् ॥9॥
अन्वयार्थ : यह मूढ़ प्राणी जिस समय मोह के उदय से चेतन तथा अचेतन पदार्थों से अपनी एकता मानता है तब यह जीव अपने आपको अपने ही भावों से बाँधता है अर्थात् कर्मबन्ध करता है और जब यह अन्य पदार्थों से अपनी एकता नहीं मानता है तब कर्मबन्ध नहीं करता है और कर्मों की निर्जरापूर्वक परम्परा मोक्षगामी होता है। एकत्वभावना का यही फल है ॥९॥
वर्णीजी