
अचिच्चिद्रूपयोरैक्यं बन्धं प्रति न वस्तुत: ।
अनादिश्चानयो: श्र्लेष: स्वर्णकालिकयोरिव ॥2॥
अन्वयार्थ : चेतन और अचेतन के बन्धदृष्टि की अपेक्षा एकपना है और वस्तुत: देखने से दोनों भिन्न-भिन्न वस्तु हैं, एकपना नहीं है। इन दोनों का अनादिकाल से एकक्षेत्रावगाहरूप संश्लेष है-मिलाप है। जैसे सुवर्ण और कालिमा के खानि में एकपना है उसी प्रकार जीव-पुद्गलों के एकता है परन्तु वास्तव में भिन्न-भिन्न वस्तु हैं ॥२॥
वर्णीजी