
अन्यत्वं किं न पश्यन्ति जडा जन्मग्रहार्दिता: ।
यज्जन्ममृत्युसंपाते सर्वेणापि प्रतीयते ॥5॥
अन्वयार्थ : यद्यपि उक्त प्रकार से शरीर और आत्मा के अन्यपना है तथापि संसाररूपी पिशाच से पीड़ित मूढ़ प्राणी क्यों नहीं देखते कि यह अन्यपना जन्म तथा मरण के सम्पात में सर्वलोक की प्रतीति में आता है ? अर्थात् जन्मा तब शरीर को साथ लाया नहीं, और मरता है तब यह शरीर साथ जाता नहीं है। इस प्रकार शरीर से जीव की पृथकता प्रतीत होती है ॥५॥
वर्णीजी