
अन्यत्वमेव देहेन स्याद्भृशं यत्र देहिन: ।
तत्रैक्यं बन्धुभि: सार्धं बहिरङ्गै: कुतो भवेत् ॥7॥
अन्वयार्थ : जब उपर्युक्त प्रकार से देह से ही प्राणी के अत्यन्त भिन्नता है तब बहिरंग जो कुटुम्बादिक हैं उनसे एकता कैसे हो सकती है ? क्योंकि ये तो प्रत्यक्ष में भिन्न दीख पड़ते हैं ॥७॥
वर्णीजी