ये ये सम्बन्धमायाता: पदार्थाश्चेतनेतरा: ।
ते ते सर्वेऽपि सर्वत्र स्वस्वरूपाद्विलक्षणा: ॥8॥
अन्वयार्थ : इस जगत में जो-जो जड़ और चेतन पदार्थ इस प्राणी के सम्बन्धरूप हुए हैं, वे सब ही सर्वत्र अपने-अपने स्वरूप से विलक्षण (भिन्न-भिन्न) हैं, आत्मा सबसे अन्य है ॥८॥

  वर्णीजी