वर्णीजी
त्वत्स्वरूपमतिक्रम्य पृथक्पृथग्व्यवस्थिता: ।
सर्वेऽपि सर्वथा मूढ भावास्त्रैलोक्यवर्त्तिन: ॥11॥
अन्वयार्थ :
हे मूढ़ प्राणी! तीन लोकवर्ती समस्त ही पदार्थ तेरे स्वरूप से भिन्न सर्वथा पृथक्-पृथक् तिष्ठते हैं, तू उनसे अपना एकत्व न मान ॥११॥
वर्णीजी