(शार्दूलविक्रीडितम्)
मिथ्यात्वप्रतिबद्धदुर्नयपथभ्रान्तेन बाह्यानलं
भावान् स्वान् प्रतिपद्य जन्मगहने खिन्नं त्वया प्राक् चिरं ।
संप्रत्यस्तसमस्तविभ्रमभवश्चिद्रूपमेकं परम्
स्वस्थं स्वं प्रविगाह्य सिद्धिवनितावक्त्रं समालोकय ॥12॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन् ! तू इस संसाररूपी गहन वन में मिथ्यात्व के सम्बन्ध से उत्पन्न हुए सर्वथा एकान्तरूप दुर्नय के मार्ग में भ्रमरूप होता हुआ, बाह्य पदार्थों को अतिशय करके, अपने मान करके तथा अंगीकार करके, चिरकाल से सदैव खेदखिन्न हुआ और अब अस्त हुआ है समस्त विभ्रमों का भार जिसका ऐसा होकर, तू अपने आप ही में रहने वाले उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप को अवगाहन करके उसमें मुक्तिरूपी स्त्री के मुख को अवलोकन कर (देख)
(दोहा)
अपने-अपने सत्त्वकूं, सर्व वस्तु विलसाय ।
ऐसे चितवै जीव तब, परतैं ममत न धाय ॥२॥

  वर्णीजी