
असृग्मांसवसाकीर्णं शीर्णं कीकसपञ्जरम् ।
शिरानद्धं च दुर्गन्धं क्व शरीरं प्रशस्यते ॥2॥
अन्वयार्थ : यह शरीर रुधिर, माँस, चर्बी से घिरा हुआ सड़ रहा है, हाड़ों का पंजर है और शिराओं से बंधा हुआ दुर्गन्धमय है । इस शरीर के कौन से स्थान की प्रशंसा करें ? सर्वत्र निंद्य ही दीख पड़ता है ॥२॥
वर्णीजी